उम्र गुज़री जंगलों की खाक छानते। नदी-नाले-पहाड़-सागर-वन, ऊबड़-खाबड़, कभी समतल भी। वृक्षों, पशु-पक्षियों का सानिध्य रहा। उन्हीं की सुरक्षा ही कर्मक्षेत्र रहा। उगते सूरज का-ढलते सूरज का गवाह रहा। प्रकृति ने हृदय और मनमस्तिष्क में घर बना लिया था। सौन्दर्य से वहीं परिचित हुआ और वहीं पैदा हुयी मोहब्बत। उसी ने मनोभाव जागृत किये जिन्हें कागजों पर उतारता रहा।
विशुद्ध प्रेम करना वहीं सीखा। इश्क-मोहब्बत के जज्बातों ने वहीं अंगड़ाइयाँ लीं। मन ने ओशीन-माला बनाई। बहुत दिनों तक संजोकर रखा।
अब यही अनगढ़ प्रयास आपको प्रस्तुत है। डूबिये गीतों की अतल गहराइयों में और फिर ओशीन है ही आपके हाथों में।
अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे तो आभारी रहूँगा।
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